۲ آذر ۱۴۰۳ |۲۰ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 22, 2024
किताब

हौजा़ / मोहर्रम में कुछ लोग पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. के लाल इमाम हुसैन अ. की शहादत का ग़म मनाते हैं। करबला के शहीदों की याद में मजलिस बरपा करते हैं, रोते हैं पीटते हैं खाना खिलाते हैं और इमाम हुसैन (अ) और करबला वालों की याद को ताज़ा करते हैं और कोई भी ऐसा काम करने से परहेज़ करते हैं जिससे किसी भी तरह की ख़ुशी ज़ाहिर हो और कुछ लोग कहते हैं कि हमें ग़म नही मनाना चाहिए, न रोना पीटना चाहिए, न इमाम हुसैन (अ) की मजलिस करना चाहिए क्योंकि यह काम बिदअत है और इस्लाम में बिदअत जायज़ नहीं है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,मोहर्रम में कुछ लोग पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स) के लाल इमाम हुसैन (अ) की शहादत का ग़म मनाते हैं। करबला के शहीदों की याद में मजलिस बरपा करते हैं, रोते हैं पीटते हैं खाना खिलाते हैं और इमाम हुसैन (अ) और करबला वालों की याद को ताज़ा करते हैं और कोई भी ऐसा काम करने से परहेज़ करते हैं जिससे किसी भी तरह की ख़ुशी ज़ाहिर हो और कुछ लोग कहते हैं कि हमें ग़म नही मनाना चाहिए, न रोना पीटना चाहिए, न इमाम हुसैन (अ) की मजलिस करना चाहिए क्योंकि यह काम बिदअत है और इस्लाम में बिदअत जायज़ नहीं है।

अहले सुन्नत की बड़ी मोतबर हदीस की किताबों से देखते है कि क्या हक़ीक़त में ग़म मनाना सहीह व जायज़ है या बिदअत है?

कुछ लोगों का कहना है कि इमाम हुसैन (अ) और करबला में जो लोग क़त्ल किये गए वह शहीद हैं और शहीद का ग़म नहीं मनाया जाता और न उन पर आँसू बहाएं जाते हैं। ठीक है फिर तारीख़ पर नज़र उठाकर देखते हैं कि क्या किसी इस्लामिक जंग में किसी के शहीद होने पर कोई रोया या नहीं?

  सहीह बुख़ारी, हदीस नंबर 1246 में बयान हुआ है:

حَدَّثَنَا أَبُو مَعْمَرٍ ، حَدَّثَنَا عَبْدُ الْوَارِثِ ، حَدَّثَنَا أَيُّوبُ ، عَنْ حُمَيْدِ بْنِ هِلَالٍ ، عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ , قَالَ : قَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : أَخَذَ الرَّايَةَ زَيْدٌ فَأُصِيبَ ، ثُمَّ أَخَذَهَا جَعْفَرٌ فَأُصِيبَ ، ثُمَّ أَخَذَهَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ رَوَاحَةَ فَأُصِيبَ ، وَإِنَّ عَيْنَيْ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لَتَذْرِفَانِ ، ثُمَّ أَخَذَهَا خَالِدُ بْنُ الْوَلِيدِ مِنْ غَيْرِ إِمْرَةٍ فَفُتِحَ لَهُ   

  नबी करीम (स) ने फ़रमाया: ज़ैद ने अलम (झंडा) सँभाला लेकिन वह शहीद हो गए, फिर जाफ़र ने संभाला और वह भी शहीद हो गए फिर अब्दुल्लाह बिन रवाह ने संभाला और वह भी शहीद हो गये, उस वक़्त (उन सब की शहादत की वजह से) रसूल अल्लाह (स) की आँखों से आँसू बह रहे थे।

बुख़ारी शरीफ़ की इस हदीस के मुताबिक़ जब दुश्मनाने इस्लाम से जंग हो रही थी और इस जंग में जब एक के बाद एक हज़रत ज़ैद, फिर हज़रत जाफ़र और फिर हज़रत अब्दुल्लाह शहीद हो गए तो उनकी शहादत पर ख़ुद हुज़ूर पाक अलैहिस्सलाम गिरया फ़रमा रहे थे और उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। हुज़ूर पाक अलैहिस्सलाम के इस अमल से यह बात तो ज़ाहिर हो गई कि किसी शहीद की शहादत पर रोया जा सकता है।

क्या इमाम हुसैन (अ) और उनके घर के जवान, बच्चे और औरतें जो सब आले रसूल (स) हैं उन सब पर हुए ज़ुल्म व सितम पर रोया जा सकता है? या उन की शहादत पर रोना सुन्नत है या बिदअत!?

  किताब मिश्कातुल मसाबीह में हदीस नंबर 6180 में बयान हुआ है:

وَعَن أمِّ الْفضل بنت الْحَارِث أَنَّهَا دَخَلْتُ عَلَى رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَتْ: يَا رَسُولَ اللَّهِ إِنِّي رَأَيْتُ حُلْمًا مُنْكَرًا اللَّيْلَةَ. قَالَ: «وَمَا هُوَ؟» قَالَتْ: إِنَّهُ شَدِيدٌ قَالَ: «وَمَا هُوَ؟» قَالَتْ: رَأَيْتُ كَأَنَّ قِطْعَةً مِنْ جَسَدِكَ قُطِعَتْ وَوُضِعَتْ فِي حِجْرِي. فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: «رَأَيْتِ خَيْرًا تَلِدُ فَاطِمَةُ إِنْ شَاءَ اللَّهُ غُلَامًا يَكُونُ فِي حِجْرِكِ» . فَوَلَدَتْ فَاطِمَةُ الْحُسَيْنَ فَكَانَ فِي حِجْرِي كَمَا قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ. فَدَخَلْتُ يَوْمًا عَلَى رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَوَضَعْتُهُ فِي حِجْرِهِ ثُمَّ كَانَتْ مِنِّي الْتِفَاتَةٌ فَإِذَا عَيْنَا رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ تَهْرِيقَانِ الدُّمُوعَ قَالَتْ: فَقُلْتُ: يَا نبيَّ الله بِأبي أَنْت وَأمي مَالك؟ قَالَ: أَتَانِي جِبْرِيل عَلَيْهِ السَّلَامُ فَأَخْبَرَنِي أَنَّ أُمَّتِي سَتَقْتُلُ ابْنِي هَذَا فَقُلْتُ: هَذَا؟ قَالَ: نَعَمْ وَأَتَانِي بِتُرْبَةٍ من تربته حَمْرَاء

  उम्मुल फ़ज़्ल बिन्ते हारिस से रिवायत है कि वह रसूल अल्लाह (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुईं और अर्ज़ किया: अल्लाह के रसूल! मैंने रात एक अजीब सा ख़्वाब देखा है, आप अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: वह क्या है? उन्होंने अर्ज़ किया: वह बहुत शदीद है, आप अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: वह क्या है? उन्होंने अर्ज़ किया: मैंने देखा कि गोया गोश्त का एक टुकड़ा है जो आप के जिस्म अतहर से काट कर मेरी गोद में रख दिया गया है। रसूल अल्लाह (स) ने फ़रमाया: तुम ने ख़ैर देखी है, इंशाअल्लाह मेरी बेटी फ़ातिमा (स.अ) बच्चे को जन्म देंगी और वह तुम्हारी गोद में होगा। हज़रत फ़ातिमा (स.अ) ने हुसैन अलैहिस्सलाम को जन्म दिया और वह मेरी गोद में था, जैसे रसूल अल्लाह (स) ने फ़रमाया था। एक रोज़ मैं रसूल अल्लाह (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुई तो मैंने हुसैन (अ) को आप अलैहिस्सलाम की गोद में रख दिया, फिर मैं किसी और जगह मुतवज्जह हो गई अचानक देखा कि रसूल अल्लाह (स) की आँखों से आँसू बह रहे थे, वह बयान करती हैं, मैंने अर्ज़ किया: अल्लाह के नबी! मेरे वालेदैन आप पर क़ुर्बान हों! आप को क्या हुआ? आप (स) ने फ़रमाया: जिब्रईल मेरे पास तशरीफ़ लाए और उन्होंने मुझे बताया कि मेरी उम्मत अनक़रीब मेरे इस बेटे को शहीद कर देंगी। मैंने कहा इस (बच्चे) को? उन्होंने कहा: हाँ! और उन्होंने मुझे उस जगह से उसकी तुर्बत की सुर्ख़ मिट्टी लाकर दी।

  अहले सुन्नत की इस मशहूर व मारूफ़ किताब में सहीह रिवायत को देखने के बाद पता चलता है कि सिर्फ़ इमाम हुसैन (अ) की शहादत की ख़बर सुनकर (जबकि अभी वह शहीद भी नहीं हुए हैं और ज़िंदा व जावेद हैं बल्कि अभी तो एक छोटा सा बच्चा हैं) हुज़ूरे अकरम (स) ज़ारो क़तार रोने लगे और फिर इस वाक़ेए की याद को ताज़ा रखने के लिए हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम ने उस जगह की जहाँ पर इमाम हुसैन (अ) की क़ब्र मुबारक (तुर्बत) है वहाँ की सुर्ख़ मिट्टी भी लाकर दी... फिर अगर कोई बादे शहादत इमाम हुसैन (अ) पर रोएं और उनकी याद को ताज़ा करें तो यह कैसे बिदअत हो सकता है? बल्कि जो इस याद को ताज़ा नहीं करते और इमाम हुसैन (अ) की शहादत का ग़म नहीं मनाते और रोते नहीं हैं वह यक़ीनन हुज़ूरे पाक (स) की सुन्नत से दूर हैं।

  चलिये यह तो समझ में आ गया कि ग़मे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मनाना सुन्नत ए नबवी (स) है! कोई बिदअत नहीं है और एक सवाब का अमल है जो ख़ुद नबी करीम अलैहिस्सलाम से साबित है। लेकिन आशूरा को यानी 10 मोहर्रम को हमें किस हाल में रहना चाहिए? हमारा हुलिया कैसा होना चाहिये? यह भी देख लेते हैं।

  किताब मिश्कातुल मसाबीह में हदीस नंबर 6181 में बयान हुआ है:

وَعَن ابْن عَبَّاس قَالَ: رَأَيْت النَّبِي صلى الله عَلَيْهِ وسل فِيمَا يَرَى النَّائِمُ ذَاتَ يَوْمٍ بِنِصْفِ النَّهَارِ أَشْعَثَ أَغْبَرَ بِيَدِهِ قَارُورَةٌ فِيهَا دَمٌ فَقُلْتُ: بِأَبِي أَنْتَ وَأُمِّي مَا هَذَا؟ قَالَ: «هَذَا دَمُ الْحُسَيْنِ وَأَصْحَابِهِ وَلَمْ أَزَلْ أَلْتَقِطُهُ مُنْذُ الْيَوْم» فأحصي ذَلِك الْوَقْت فأجد قبل ذَلِكَ  الْوَقْتِ. رَوَاهُمَا الْبَيْهَقِيُّ فِي «دَلَائِلِ النُّبُوَّةِ» وَأحمد الْأَخير

  अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (रज़ि) से रिवायत है कि उन्होंने कहा: मैंने एक रोज़ निस्फ़ नहार के वक़्त हज़रत पैग़म्बर (स) को ख़्वाब में देखा कि आप अलैहिस्सलाम के बाल बिखरे हुए हैं और जिस्म अतहर ग़ुबार आलूदा (जिस्म पर धूल मिट्टी पड़ी हुई) है, आप अलैहिस्सलाम के हाथ में ख़ून की बोतल है, मैंने अर्ज़ किया: मेरे वालेदैन आप पर क़ुर्बान हों! यह क्या है? आप अलैहिस्सलाम नें फ़रमाया: यह हुसैन और उनके साथियों का ख़ून है, मैं आज सुबह से इसे इकट्ठा कर रहा हूँ। मैंने उस वक़्त को याद रखा और बाद में मुझे मालूम हुआ कि उस वक़्त उन्हें शहीद किया गया था। (दोंनो अहादीस को जनाब बैहक़ी ने 'दलाएल ए नुबूवत' में रिवायत बयान की है और आख़िरी हदीस को इमाम अहमद ने भी रिवायत बयान की है)

  अहले सुन्नत की ही इस मोतबर किताब की इस रिवायत को पढ़ने के बाद तमाम मुसलमानों को यह समझ में आ जाना चाहिए कि मोहर्रम की 10 तारीख़ को यानी आशूरा के दिन हम को किस हाल में रहना चाहिए मतलब हमारा हुलिया कैसा होना चाहिये, ज़ाहिरी तौर से तो करबला के वाक़िये के वक़्त हुज़ूरे पाक (स) की वफ़ात हो चुकी थी बावजूद इसके बरोज़े आशूरा एक बड़े सहाबी हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास के ख़्वाब में हुज़ूर (स) का आना और यह इत्तेला देना कि मेरा बेटा हुसैन और उसके तमाम साथी करबला में शहीद हो चुके हैं और मैं (रसूल) ख़ुद उन तमाम शोहदा ए करबला का ख़ून आज सुबह से जमा कर रहा हूँ! यह बोलना इस बात की दलील है कि करबला के शोहदा की ख़बर दूसरों तक पहुंचाना उनका ज़िक्र करना उन पर रोना यह सब सुन्नत है और सबसे अहम बात कि आशूरा के दिन हम को नबी ए पाक अलैहिस्सलाम की ही तरह बाल बिखरे हुए और अपने जिस्मों को धूल मिट्टी में आलूदा किए हुए मतलब जिस तरह से कोई बेहद ग़मगीन इंसान जिसका सब कुछ लूट चुका हो पूरा घर बर्बाद हो चुका हो इस हालत में रहना सुन्नते नबवी है ताकि हम हुज़ूर पाक अलैहिस्सलाम को उनके अहलेबैत (अ) की शहादत व ज़ुल्म का पुरसा व ताज़ियत उन्हीं के बताए हुए अंदाज़ से पेश कर सकें।

  क्या तारीख़ में किसी और की भी वफ़ात पर किसी और मोतबर शख़्सियतों का ग़म मनाना उन पर नौहा करना (मय्यत पर रो कर कुछ बयान करना) या उन पर मर्सिया पढ़ना (बहुत ज़ियादा ग़म की हालत में कुछ बयान करना) या मातम करना (ग़म की वजह से अपने सीने व चेहरे को पीटना) यह सब अमल भी देखने को मिलते हैं!?

मय्यत पर ग़म की वजह से मर्सिया पढ़ना कैसा है!?

  मुसनदे अहमद में हदीस नंबर 11041 में बयान हुआ है:

۔ (۱۱۰۴۱)۔ عَنْ عَائِشَۃَ، أَنَّ أَبَا بَکْرٍ دَخَلَ عَلَی النَّبِیِّ ‌صلی ‌اللہ ‌علیہ ‌وآلہ ‌وسلم بَعْدَ وَفَاتِہِ فَوَضَعَ فَمَہُ بَیْنَ عَیْنَیْہِ، وَوَضَعَ یَدَیْہِ عَلَی صُدْغَیْہِ، وَقَالَ وَا نَبِیَّاہْ، وَا خَلِیلَاہْ، وَا صَفِیَّاہْ۔ (مسند احمد: ۲۴۵۳۰)

  हज़रत आयेशा से मरवी है कि नबी ए करीम (स) की वफ़ात के बाद हज़रत अबूबकर आप अलैहिस्सलाम के पास आए और अपना मुँह आप अलैहिस्सलाम की दोनों आँखों के दरमियान और अपने हाथ आप अलैहिस्सलाम की कनपटियों पर रखे और कहा: हाय मेरे नबी! हाय मेरे ख़लील! हाय अल्लाह के मुन्तख़ब नबी!

  इस रिवायत में रसूल अल्लाह (स) की वफ़ात का ज़िक्र है कि जब आप की वफ़ात की ख़बर हज़रत अबूबकर को पहुँची तो अबू बकर हुज़ूरे पाक (स) के जिस्म मुबारक के पास आये और अपने हाथों से हुज़ूर (स) के चेहरए मुबारक को पकड़कर जिस तरह से लोग हाय हाय बोल कर मय्यत की अच्छी ख़ूबियाँ बयान कर कर के मर्सिया पढ़ते हैं उस ही अंदाज़ में बयान करने लगे कि हाय मेरे ख़लील! हाय मेरे नबी! हाय अल्लाह के मुन्तख़ब नबी। वग़ैरह...

मय्यत पर ग़म की वजह से नौहा पढ़ना:

मुसनदे अहमद में हदीस नंबर 11038 में बयान हुआ है:

۔ (۱۱۰۳۸)۔ عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِکٍ، أَنَّ فَاطِمَۃَ بَکَتْ رَسُولَ اللّٰہِ ‌صلی ‌اللہ ‌علیہ ‌وآلہ ‌وسلم فَقَالَتْ: یَا أَبَتَاہُ! مِنْ رَبِّہِ مَا أَدْنَاہُ، یَا أَبَتَاہُ! إِلٰی جِبْرِیلَ اَنْعَاہُ، یَا أَبَتَاہُ! جَنَّۃُ الْفِرْدَوْسِ مَأْوَاہُ۔ (مسند احمد: ۱۳۰۶۲)

  हज़रत अनस बिन मालिक से मरवी है कि रसूल अल्लाह (स) की वफ़ात पर सय्यदा फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा रोते हुए यूँ कह रही थीं: ऐ मेरे अब्बा जान! आप अपने रब के किस क़दर क़रीब पहुँच गए, ऐ मेरे अब्बा जान! मैं जिब्रईल को आप की मौत की ख़बर दूँगी, ऐ मेरे अब्बा जान! जन्नतुल फ़िरदौस आप का ठिकाना है।

  इस रिवायत में भी रसूल अल्लाह (स) की वफ़ात का ही ज़िक्र है जिसमें बयान हुआ है कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) जो कि नबी की प्यारी बेटी और जन्नत की औरतों की सरदार भी हैं जिनसे किसी ग़लत अमल की तवक़्क़ो भी नहीं की जा सकती, वह अपने प्यारे बाबा नबियों के सरदार की वफ़ात पर बेपनाह रोते हुए जैसे नौहा पढ़ा जाता है उस ही अंदाज़ में फ़रमा रही हैं कि ऐ मेरे अब्बा जान! आप अपने रब के किस क़दर क़रीब पहुँच गए, ऐ मेरे अब्बा जान! मैं जिब्रईल को आप की मौत की ख़बर दूँगी, ऐ मेरे अब्बा जान! जन्नतुल फ़िरदौस आप का ठिकाना है...

मय्यत पर बेपनाह ग़म की वजह से मातम होना:

मुसनदे अहमद में हदीस नंबर 11040 में बयान हुआ है:

۔ (۱۱۰۴۰)۔ عَنْ یَحْیَ بْنِ عَبَّادِ بْنِ عَبْدِ اللّٰہِ بْنِ الزُّبَیْرِ عَنْ اَبِیْہِ عَبَّادٍ قَالَ: سَمِعْتُ عَائِشَۃَ تَقُوْلُ: مَاتَ رَسُوْلُ اللّٰہِ ‌صلی ‌اللہ ‌علیہ ‌وآلہ ‌وسلم بَیْنَ سَحْرِیْ وَنَحْرِیْ وَفِیْ دَوْلَتِیْ لَمْ اَظْلِمْ فِیْہِ اَحَدًا، فَمِنْ سَفَہِیْ وَحَدَاثَۃِ سِنِّیْ اَنَّ رَسُوْلَ اللّٰہِ ‌صلی ‌اللہ ‌علیہ ‌وآلہ ‌وسلم قُبِضَ وَھُوَ فِیْ حِجْرِیْ، ثُمَّ وَضَعْتُ رَاْسَہٗعَلٰی وِسَادَۃٍ، وَقُمْتُ اَلْتَدِمُ مَعَ النِّسَائِ وَاَضْرِبُ وَجْہِیْ۔ (مسند احمد: ۲۶۸۸۰)

हज़रत आयेशा से रिवायत है कि उन्होंने कहा: अल्लाह के रसूल (स) का इंतेक़ाल मेरी गर्दन और सीने के दरमियान मेरी ही बारी के दिन हुआ, मैंने उस दिन किसी से कुछ भी ज़ियादती नहीं की, यह मेरी नासमझी और नौ उमरी थी कि मेरी गोद में रसूल अल्लाह (स) फ़ौत हुए। फिर मैंने आप अलैहिस्सलाम का सर ए मुबारक तक़िये पर रख दिया और मैं औरतों के साथ मिलकर रोने लगी और अपने चेहरे पर हाथ मारने लगीं।

इस मोतबर रिवायत में उम्मुल मोमिनीन आयेशा से ख़ुद रिवायत मिलती हैं कि जब रसूल अल्लाह (स) की वफ़ात हो गई तो हज़रत आयेशा ने रसूल अल्लाह (स) का सर ए मुबारक को तक़िये पर रख दिया और दूसरी तमाम औरतों के साथ मिलकर रोने लगीं और हुज़ूर (स) से बेपनाह मोहब्बत और लगाव के ग़म की वजह से अपने अपने चेहरों पर हाथ मारकर मातम करती हुई रोने और पीटने लगीं।

यहीँ पर ग़म और बेचैनी की हालत की वजह से अपने चेहरे को पीटने और मातम की मिसाल क़ुरआने पाक में सूरए ज़ारेयात की आयत 28, 29 और 30 में भी नबी की बीवी से मिलती है:

الذاريات: 28
فَأَقْبَلَتِ امْرَأَتُهُ فِي صَرَّةٍ فَصَكَّتْ وَجْهَهَا وَقَالَتْ عَجُوزٌ عَقِيمٌ

इस पर भी न खाया) तो इब्राहीम उनसे जो ही जी में डरे वह लोग बोले आप अन्देशा न करें और उनको एक दानिशमन्द लड़के की ख़ुशख़बरी दी।

فَأَقْبَلَتِ امْرَأَتُهُ فِي صَرَّةٍ فَصَكَّتْ وَجْهَهَا وَقَالَتْ عَجُوزٌ عَقِيمٌ

  तो (यह सुनते ही) इब्राहीम की बीवी (सारा) चिल्लाती हुई उनके सामने आयीं और अपना मुँह पीट लिया कहने लगीं एक तो (मैं) बुढ़िया (उस पर) बांझ।

قَالُوا كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِ ۖ إِنَّهُ هُوَ الْحَكِيمُ الْعَلِيمُ

  लड़का क्यों कर होगा फ़रिश्ते बोले तुम्हारे परवरदिगार ने यूँ ही फ़रमाया है वह बेशक हिकमत वाला वाक़िफ़कार है।

  ऊपर दी हुई क़ुरआन की आयात को देखने पर पता चलता है कि जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को उनके बेटे होने के लिए फ़रिश्तों ने ख़बर दी तो यह सुनते ही हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बीवी हज़रत सारा जो कि बहुत बुज़ुर्ग हो चुकी थी और जो बांझ भी थी वह ग़म में चीखने लगी और अपने चेहरे को पीटने लगीं और बोलने लगीं मेरी ऐसी हालत में लड़का कैसे होगा? लेकिन उन के इस मुँह को पीटने के अमल के बावजूद वहाँ मौजूद नबी अलैहिस्सलाम और उनके साथ फ़रिश्तों का भी कुछ न बोलना इस बात का सबूत है कि यह नाजायज़ अमल नहीं है बल्कि एक फ़ितरी अमल है। नहीं तो एक नाजायज़ अमल पर इतने बड़े नबी और फ़रिश्ते ज़रूर तम्बीह करते और उन्हें इस अमल से रोकते।

क़ुरआन में सूरए हाक़्क़ा की आयत 33, 34, 35 और 36 में ग़म मनाने के बारे में ज़िक्र हुआ है:

إِنَّهُ كَانَ لَا يُؤْمِنُ بِاللَّهِ الْعَظِيمِ
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ الْمِسْكِينِ

क्यों कि) यह न तो बुज़ुर्ग ख़ुदा ही पर ईमान लाता था और न मोहताज के खिलाने पर आमादा (लोगों को) करता था। तो आज न उसका कोई ग़मख़्वार है।

فَلَيْسَ لَهُ الْيَوْمَ هَاهُنَا حَمِ

और न पीप के सिवा (उसके लिए) कुछ खाना है।

وَلَا طَعَامٌ إِلَّا مِنْ غِسْلِينٍ

जिसको गुनाहगारों के सिवा कोई नहीं खाएगा।

क़ुरआन की इन आयतों का ज़िक्र ऐसे गुनाहगार शख़्स के बारे में आया है जो अल्लाह पर ईमान नहीं रखता था और फिर उसके ऊपर नाज़िल होने वाले अज़ाब का भी ज़िक्र आया है लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है कि आयत नम्बर 34 में ऐसे गुनाहगार के बारे में आया है कि आज न उसका कोई ग़मख़्वार है, मतलब गुनाहगारों का कोई ग़मख़्वार नहीं होता है, लेकिन अल्लाह के महबूब और ईमान वालों का ग़मख़्वार होता है जो उसकी मुसीबत पर ग़म का इज़हार करता है।

  ऐ उम्मते मुस्लिमां! अब और झूठ न फैलाया जाएं, न ही एक दूसरे को नफ़रत की नज़रों से देखा जाएं और न ही यह सोचा जाएं कि हम इमाम हुसैन (अ) और शोहदा ए करबला जो नबी ए करीम (स) के नवासे उनके लख़्ते जिगर भी हैं अगर उनका ग़म मनाने लगेंगे या उनकी शहादत की मजलिसें बरपा करने लगेंगे तो लोग हमें भी शिया कहने लगेंगे। यह सब छोड़िए!

बस यह देखिए कि इस मौज़ू पर रसूल (स) और आले रसूल (अ) का क्या अमल रहा है? क्यों इमाम हुसैन (अ) के बेटे इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम करबला के वाक़िये को याद कर कर के अपनी पूरी ज़िंदगी भर रोते रहे? क्या वह नहीं जानते थे कि इमाम हुसैन (अ) या शोहदा पर रोना जायज़ नहीं है? क्या हम उनसे ज़ियादा दीन और शरीअत को जानते हैं?

अरे शर्म करों, मुसलमानों में दाख़िल हुए नासीबियों, ख़ारिजियों! ख़ुद को उम्मते मोहम्मदी (स) भी कहते हो और आले मोहम्मद अलैहिमुस्सलाम के साथ ऐसा बेगाना अमल अंजाम देते हों? आज के बनी उमैया की नाजाएज़ औलादों के बहकावे में आकर जबकि हमारी अहले सुन्नत की बड़ी बड़ी सहीह किताबें भरी पड़ी हैं

जिनमें हुज़ूरे पाक (स) के ग़म मनाने के तज़किरे भी आए है और क्या चाहिए आप को? अभी भी वक़्त है सहीह सुन्नत पर अमल कीजिए और इस्लाम दुश्मन ताक़तों को रसूल (स) की आल का ग़म व अज़ादारी मनाकर मुंहतोड़ जवाब दीजिए।

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